Bhagavad Gita: Chapter <%= chapter %>, Verse <%= verse %>

तानहं द्विषतः क्रूरान्संसारेषु नराधमान्।क्षिपाम्यजस्रमशुभानासुरीष्वेव योनिषु।।16.19।। असुरीं योनिमापन्ना मूढा जन्मनि जन्मनि।मामप्राप्यैव कौन्तेय ततो यान्त्यधमां गतिम्।।16.20।।

tān ahaṁ dviṣhataḥ krūrān sansāreṣhu narādhamān kṣhipāmy ajasram aśhubhān āsurīṣhv eva yoniṣhu āsurīṁ yonim āpannā mūḍhā janmani janmani mām aprāpyaiva kaunteya tato yānty adhamāṁ gatim

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Word Meanings

tānthese
ahamI
dviṣhataḥhateful
krūrāncruel
sansāreṣhuin the material world
nara-adhamānthe vile and vicious of humankind
kṣhipāmiI hurl
ajasramagain and again
aśhubhāninauspicious
āsurīṣhudemoniac
evaindeed
yoniṣhuin to the wombs
āsurīmdemoniac
yonimwombs
āpannāḥgaining
mūḍhāḥthe ignorant
janmani janmaniin birth after birth
māmme
aprāpyafailing to reach
evaeven
kaunteyaArjun, the son of Kunti
tataḥthereafter
yāntigo
adhamāmabominable
gatimdestination
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अनुवाद

।।16.19।।उन द्वेष करनेवाले, क्रूर स्वभाववाले और संसारमें महान् नीच, अपवित्र मनुष्योंको मैं बार-बार आसुरी योनियोंमें गिराता ही रहता हूँ। ।।16.20।।हे कुन्तीनन्दन ! वे मूढ मनुष्य मेरेको प्राप्त न करके ही जन्म-जन्मान्तरमें आसुरी योनिको प्राप्त होते हैं, फिर उससे भी अधिक अधम गतिमें अर्थात् भयङ्कर नरकोंमें चले जाते हैं।

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टीका

।।16.19।। व्याख्या --   तानहं द्विषतः क्रूरान्संसारेषु नराधमान् -- सातवें अध्यायके पंद्रहवें और नवें अध्यायके बारहवें श्लोकमें वर्णित आसुरीसम्पदाका इस अध्यायके सातवेंसे अठारहवें श्लोकतक विस्तारसे वर्णन किया गया। अब आसुरीसम्पदाके विषयका इन दो (उन्नीसवेंबीसवें) श्लोकोंमें उपसंहार करते हुए भगवान् कहते हैं कि ऐसे आसुर मनुष्य बिना ही कारण सबसे वैर रखते हैं और सबका अनिष्ट करनेपर ही तुले रहते हैं। उनके

कर्म बड़े क्रूर होते हैं? जिनके द्वारा दूसरोंकी हिंसा आदि हुआ करती है। ऐसे वे क्रूर? निर्दयी? हिंसक मनुष्य नराधम अर्थात् मनुष्योंमें महान् नीच हैं -- नराधमान्। उनको मनुष्योंमें नीच कहनेका मतलब यह है कि नरकोंमें रहनेवाले और पशुपक्षी आदि (चौरासी लाख योनियाँ) अपने पूर्वकर्मोंका फल भोगकर शुद्ध हो रहे हैं और ये आसुर मनुष्य अन्यायपाप करके पशुपक्षी आदिसे भी नीचेकी ओर जा रहे हैं। इसलिये इन लोगोंका सङ्ग बहुत

बुरा कहा गया है -- बरु भल बास नरक कर ताता। दुष्ट संग जनि देइ बिधाता।।(मानस 5। 46। 4)नरकोंका वास बहुत अच्छा है? पर विधाता (ब्रह्मा) हमें दुष्टका सङ्ग कभी न दे क्योंकि नरकोंके वाससे तो पाप नष्ट होकर शुद्धि आती है? पर दुष्टोंके सङ्गसे अशुद्धि आती है? पाप बनते हैं पापके ऐसे बीज बोये जाते हैं? जो आगे नरक तथा चौरासी लाख योनियाँ भोगनेपर भी पूरे नष्ट नहीं होते।प्रकृतिके अंश शरीरमें राग अधिक होनेसे आसुरीसम्पत्ति

अधिक आती है क्योंकि भगवान्ने कामना(राग) को सम्पूर्ण पापोंमें हेतु बताया है (3। 37)। उस कामनाके बढ़ जानेसे आसुरीसम्पत्ति बढ़ती ही चली जाती है। जैसे धनकी अधिक कामना बढ़नेसे झूठ? कपट? छल आदि दोष विशेषतासे बढ़ जाते हैं और वृत्तियोंमें भी अधिकसेअधिक धन कैसे मिले -- ऐसा लोभ बढ़ जाता है। फिर मनुष्य अनुचित रीतिसे? छिपावसे? चोरीसे धन लेनेकी इच्छा करता है। इससे भी अधिक लोभ बढ़ जाता है? तो फिर मनुष्य डकैती करने

लग जाता है और थोड़े धनके लिये मनुष्यकी हत्या कर देनेमें भी नहीं हिचकता। इस प्रकार उसमें क्रूरता बढ़ती रहती है और उसका स्वभाव राक्षसोंजैसा बन जाता है। स्वभाव बिगड़नेपर उसका पतन होता चला जाता है और अन्तमें उसे कीटपतङ्ग आदि आसुरी योनियों और घोर नरकोंकी महान् यातना भोगनी पड़ती है।क्षिपाम्यजस्रमशुभानासुरीष्वेव योनिषु -- जिनका नाम लेना? दर्शन करना? स्मरण करना आदि भी महान् अपवित्र करनेवाला है -- अशुभान्?

ऐसे क्रूर? निर्दयी? सबके वैरी मनुष्योंके स्वभावके अनुसार ही भगवान् उनको आसुरी योनि देते हैं। भगवान् कहते हैं -- आसुरीष्वेव योनिषु क्षिपामि अर्थात् मैं उनको उनके स्वभावके लायक ही कुत्ता? साँप? बिच्छू? बाघ? सिंह आदि आसुरी योनियोंमें गिराता हूँ। वह भी एकदो बार नहीं? प्रत्युत बारबार गिराता हूँ -- अजस्रम्? जिससे वे अपने कर्मोंका फल भोगकर शुद्ध? निर्मल होते रहें।भगवान्का उनको आसुरी योनियोंमें गिरानेका तात्पर्य

क्या हैभगवान्का उन क्रूर? निर्दयी मनुष्योंपर भी अपनापन है। भगवान् उनको पराया नहीं समझते? अपना द्वेषीवैरी नहीं समझते? प्रत्युत अपनी ही समझते हैं। जैसे? जो भक्त जिस प्रकार भगवान्की शरण लेते हैं? भगवान् भी उनको उसी प्रकार आश्रय देते हैं (गीता 4। 11)। ऐसे ही जो भगवान्के साथ द्वेष करते हैं? उनके साथ भगवान् द्वेष नहीं करते? प्रत्युत उनको अपना ही समझते हैं। दूसरे साधारण मनुष्य जिस मनुष्यसे अपनापन करते हैं?

उस मनुष्यको ज्यादा सुखआराम देकर उसको लौकिक सुखमें फँसा देते हैं परन्तु भगवान् जिनसे अपनापन करते हैं उनको शुद्ध बनानेके लिये वे प्रतिकूल परिस्थिति भेजते हैं? जिससे वे सदाके लिये सुखी हो जायँ -- उनका उद्धार हो जाय।जैसे? हितैषी अध्यापक विद्यार्थियोंपर शासन करके? उनकी ताड़ना करके पढ़ाते हैं? जिससे वे विद्वान् बन जायँ? उन्नत बन जायँ? सुन्दर बन जायँ? ऐसे ही जो प्राणी परमात्माको जानते नहीं? मानते नहीं और

उनका खण्डन करते हैं? उनको भी परम कृपालु भगवान् जानते हैं? अपना मानते हैं और उनको आसुरी योनियोंमें गिराते हैं? जिससे उनके किये हुए पाप दूर हो जायँ और वे शुद्ध? निर्मल बनकर अपना कल्याण कर लें। ।।16.20।। व्याख्या --   आसुरीं योनिमापन्ना ৷৷. मामप्राप्यैव कौन्तेय -- पीछेके श्लोकमें भगवान्ने आसुर मनुष्योंको बारबार पशुपक्षी आदिकी योनियोंमें गिरानेकी बात कही। अब उसी बातको लेकर भगवान् यहाँ कहते हैं कि मनुष्यजन्ममें

मुझे प्राप्त करनेका दुर्लभ अवसर पाकर भी वे आसुर मनुष्य मेरी प्राप्ति न करके पशु? पक्षी आदि आसुरी योनियोंमें चले जाते हैं और बारबार उन आसुरी योनियोंमें ही जन्म लेते रहते हैं।मामप्राप्यैव पदसे भगवान् पश्चात्तापके साथ कहते हैं कि अत्यन्त कृपा करके मैंने जीवोंको मनुष्यशरीर देकर इन्हें अपना उद्धार करनेका मौका दिया और यह विश्वास किया कि ये अपना उद्धार अवश्य कर लेंगे परन्ते ये नराधम इतने मूढ़ और विश्वासघाती

निकले कि जिस शरीरसे मेरी प्राप्ति करनी थी? उससे मेरी प्राप्ति न करके उलटे अधम गतिको चले गयेमनुष्यशरीर प्राप्त हो जानेके बाद वह कैसा ही आचरणवाला क्यों न हो अर्थात् दुराचारीसेदुराचारी क्यों न हो? वह भी यदि चाहे तो थो़ड़ेसेथोड़े समयमें (गीता 9। 30 -- 31) और जीवनके अन्तकालमें (गीता 8। 5) भी भगवान्को प्राप्त कर सकता है। कारण कि समोऽहं सर्वभूतेषु (गीता 9। 29) कहकर भगवान्ने अपनी प्राप्ति सबके लिये अर्थात्

प्राणिमात्रके लिये खुली रखी है। हाँ? यह बात हो सकती है कि पशुपक्षी,आदिमें उनको प्राप्त करनेकी योग्यता नहीं है परन्तु भगवान्की तरफसे तो किसीके लिये भी मना नहीं है। ऐसा अवसर सर्वथा प्राप्त हो जानेपर भी ये आसुर मनुष्य भगवान्को प्राप्त न करके अधम गतिमें चले जाते हैं? तो इनकी इस दुर्गतिको देखकर परम दयालु प्रभु दुःखी होते हैं।ततो यान्त्यधमां गतिम् -- आसुरी योनियोंमें जानेपर भी उनके सभी पाप पूरे नष्ट नहीं

होते। अतः उन बचे हुए पापोंको भोगनेके लिये वे उन आसुरी योनियोंसे भी भयङ्कर अधम गतिको अर्थात् नरकोंको प्राप्त होते हैं।यहाँ शङ्का हो सकती है कि आसुरी योनियोंको प्राप्त हुए मनुष्योंको तो उन योनियोंमें भगवान्को प्राप्त करनेका अवसर ही नहीं है और उनमें वह योग्यता भी नहीं है? फिर भगवान्ने ऐसा क्यों कहा कि वे मेरेको प्राप्त न करके उससे भी अधम गतिमें चले जाते हैं इसका समाधान यह है कि भगवान्का ऐसा कहना आसुरी

योनियोंको प्राप्त होनेसे पूर्व मनुष्यशरीरको लेकर ही है। तात्पर्य है कि मनुष्यशरीरको पाकर? मेरी प्राप्तिका अधिकार पाकर भी वे मनुष्य मेरी प्राप्ति न करके जन्मजन्मान्तरमें आसुरी योनियोंको प्राप्त होते हैं। इतना ही नहीं? वे उन आसुरी योनियोंसे भी नीचे कुम्भीपाक आदि घोर नरकोंमें चले जाते हैं।विशेष बातभगवत्प्राप्तिके अथवा कल्याणके उद्देश्यसे दिये गये मनुष्यशरीरको पाकर भी मनुष्य कामना? स्वार्थ एवं अभिमानके

वशीभूत होकर चोरीडकैती? झूठकपट? धोखा? विश्वासघात? हिंसा आदि जिन कर्मोंको करते हैं? उनके दो परिणाम होते हैं -- (1) बाहरी फलअंश और (2) भीतरी संस्कारअंश। दूसरोंको दुःख देनेपर उनका (जिनको दुःख दिया गया है) तो वही नुकसान होता है? जो प्रारब्धसे होनेवाला है परन्तु जो दुःख देते हैं? वे नया पाप करते हैं? जिसका फल नरक उन्हें भोगना ही पड़ता है। इतना ही नहीं? दुराचारोंके द्वारा जो नये पाप होनेके बीज बोये जाते

हैं अर्थात् उन दुराचारोंके द्वारा अहंतामें जो दुर्भाव बैठ जाते हैं? उनसे मनुष्यका बहुत भयंकर नुकसान होता है। जैसे? चोरीरूप कर्म करनेसे पहले मनुष्य स्वयं चोर बनता है क्योंकि वह चोर बनकर ही चोरी करेगा और चोरी करनेसे अपनेमें (अहंतामें) चोरका भाव दृढ़ हो जायगा (टिप्पणी प0 827.1)। इस प्रकार चोरीके संस्कार उसकी अहंतामें बैठ जाते हैं। ये संस्कार मनुष्यका बड़ा भारी पतन करते हैं -- उससे बारबार चोरीरूप पाप

करवाते है और फलस्वरूप नरकोंमें ले जाते हैं। अतः जबतक वह मनुष्य अपना कल्याण नहीं कर लेता अर्थात् जबतक वह अपनी अहंतामें बैठाये हुए दुर्भावोंको नहीं मिटाता? तबतक वे दुर्भाव जन्मजन्मान्तरतक दुराचारोंको बल देते रहेंगे? उकसाते रहेंगे और उनके कारण वे आसुरी योनियोंमें तथा उससे भी भयङ्कर नरक आदिमें दुःख? सन्ताप? आफत आदि पाते ही रहेंगे।उन आसुरी योनियोंमें भी उनकी प्रकृति और प्रवृत्तिके अनुसार यह देखा जाता है

कि कई पशुपक्षी? भूतपिशाच? कीटपतंग आदि सौम्यप्रकृतिप्रधान होते हैं और कई क्रूरप्रकृतिप्रधान होते हैं। इस तरह उनकी प्रकृति(स्वभाव) में भेद उनकी अपनी बनायी हुई शुद्ध या अशुद्ध अहंताके कारण ही होते हैं। अतः उन योनियोंमें अपनेअपने कर्मोंका फलभोग होनेपर भी उनकी प्रकृतिके भेद वैसे ही बने रहते हैं। इतना ही नहीं सम्पूर्ण योनियोंको और नरकोंको भोगनेके बाद किसी क्रमसे अथवा भगवत्कृपासे उनको मनुष्यशरीर प्राप्त

हो भी जाता है? तो भी उनकी अहंतामें बैठे हुए कामक्रोधादि दुर्भाव पहलेजैसे ही रहते हैं (टिप्पणी प0 827.2)। इसी प्रकार जो स्वर्गप्राप्तिकी कामनासे यहाँ शुभ कर्म करते हैं? और मरनेके बाद उन कर्मोंके अनुसार स्वर्गमें जाते हैं? वहाँ उनके कर्मोंका फलभोग तो हो जाता है? पर उनके स्वभावका परिवर्तन नहीं होता अर्थात् उनकी अहंतामें परिवर्तन नहीं होता (टिप्पणी प0 827.3)। स्वभावको बदलनेका? शुद्ध बनानेका मौका तो मनुष्यशरीरमें

ही है। सम्बन्ध --   पूर्वश्लोकमें भगवान्ने कहा कि ये जीव मनुष्यशरीरमें मेरी प्राप्तिका अवसर पाकर भी मुझे प्राप्त नहीं करते? जिससे मुझे उनको अधम योनिमें भेजना पड़ता है। उनका अधम योनिमें और अधम गति(नरक) में जानेका मूल कारण क्या है -- इसको भगवान् आगेके श्लोकमें बताते हैं।

भगवद गीता 16.19-20 - अध्याय 16 श्लोक 19-20 हिंदी और अंग्रेजी