।।4.27।।
सर्वाणीन्द्रियकर्माणि प्राणकर्माणि चापरे। आत्मसंयमयोगाग्नौ जुह्वति ज्ञानदीपिते।।4.27।।
sarvāṇīndriya-karmāṇi prāṇa-karmāṇi chāpare ātma-sanyama-yogāgnau juhvati jñāna-dīpite
sarvāṇi—all; indriya—the senses; karmāṇi—functions; prāṇa-karmāṇi—functions of the life breath; cha—and; apare—others; ātma-sanyama yogāgnau—in the fire of the controlled mind; juhvati—sacrifice; jñāna-dīpite—kindled by knowledge
अनुवाद
।।4.27।। अन्य योगीलोग सम्पूर्ण इन्द्रियोंकी क्रियाओंको और प्राणोंकी क्रियाओंको ज्ञानसे प्रकाशित आत्मसंयमयोगरूप अग्निमें हवन किया करते हैं।
टीका
।।4.27।। व्याख्या--'सर्वाणीन्द्रियकर्माणि प्राणकर्माणि चापरे'--इस श्लोकमें समाधिको यज्ञका रूप दिया गया है। कुछ योगीलोग दसों इन्द्रियोंकी क्रियाओंका समाधिमें हवन किया करते हैं। तात्पर्य यह है कि समाधि-अवस्थामें मन-बुद्धिसहित सम्पूर्ण इन्द्रियों-(ज्ञानेन्द्रियों और कर्मेन्द्रियों-) की क्रियाएँ रुक जाती हैं। इन्द्रियाँ सर्वथा निश्चल और शान्त हो जाती हैं।समाधिरूप यज्ञमें प्राणोंकी क्रियाओँका भी हवन हो
जाता है अर्थात् समाधिकालमें प्राणोंकी क्रियाएँ भी रुक जाती हैं। समाधिमें प्राणोंकी गति रोकनेके दो प्रकार हैं--एक तो हठयोगकी समाधि होती है, जिसमें प्राणोंको रोकनेके लिये कुम्भक किया जाता है। कुम्भकका अभ्यास बढ़ते-बढ़ते प्राण रुक जाते हैं, जो घंटोंतक, दिनोंतक रुके रह सकते हैं। इस प्राणायामसे आयु बढ़ती है; जैसे--वर्षा होनेपर जल बहने लगता है तो जलके साथ-साथ बालू भी आ जाती है, उस बालूमें मेढक दब जाता है।
वर्षा बीतनेपर जब बालू सूख जाती है, तब मेढक उस बालूमें ही चुपचाप सूखे हुएकी तरह पड़ा रहता है, उसके प्राण रुक जाते हैं। पुनः जब वर्षा आती है तब वर्षाका जल ऊपर गिरनेपर मेढकमें पुनः प्राणोंका संचार होता जाता है और वह टर्राने लग जाता है।दूसरे प्रकारमें मनको एकाग्र किया जाता है। मन सर्वथा एकाग्र होनेपर प्राणोंकी गति अपने-आप रुक जाती है।