Bhagavad Gita: Chapter <%= chapter %>, Verse <%= verse %>

यज्ञशिष्टामृतभुजो यान्ति ब्रह्म सनातनम्। नायं लोकोऽस्त्ययज्ञस्य कुतो़ऽन्यः कुरुसत्तम।।4.31।।

yajña-śhiṣhṭāmṛita-bhujo yānti brahma sanātanam nāyaṁ loko ’styayajñasya kuto ’nyaḥ kuru-sattama

0:00 / --:--

Word Meanings

yajña-śhiṣhṭa amṛita-bhujaḥthey partake of the nectarean remnants of sacrifice
yāntigo
brahmathe Absolute Truth
sanātanameternal
nanever
ayamthis
lokaḥplanet
astiis
ayajñasyafor one who performs no sacrifice
kutaḥhow
anyaḥother (world)
kuru-sat-tamabest of the Kurus, Arjun
•••

अनुवाद

।।4.31।। हे कुरुवंशियोंमें श्रेष्ठ अर्जुन ! यज्ञसे बचे हुए अमृतका अनुभव करनेवाले सनातन परब्रह्म परमात्माको प्राप्त होते हैं। यज्ञ न करनेवाले मनुष्यके लिये यह मनुष्यलोक भी सुखदायक नहीं है, फिर परलोक कैसे सुखदायक होगा?

•••

टीका

4.31।। व्याख्या--'यज्ञशिष्टामृतभुजो यान्ति ब्रह्म सनातनम्'--यज्ञ करनेसे अर्थात् निष्कामभावपूर्वक दूसरोंको सुख पहुँचानेसे समताका अनुभव हो जाना ही 'यज्ञशिष्ट अमृत' का अनुभव करना है। अमृत अर्थात् अमरताका अनुभव करनेवाले सनातन परब्रह्म परमात्माको प्राप्त हो जाते हैं ( गीता 3। 13)।स्वरूपसे मनुष्य अमर है। मरनेवाली वस्तुओंके सङ्गसे ही मनुष्यको मृत्युका अनुभव होता है। इन वस्तुओंको संसारके हितमें लगानेसे जब

मनुष्य असङ्ग हो जाता है, तब उसे स्वतःसिद्ध अमरताका अनुभव हो जाता है। कर्तव्यमात्र केवल कर्तव्य समझकर किया जाय, तो वह यज्ञ हो जाता है। केवल दूसरोंके हितके लिये किया जानेवाला कर्म ही कर्तव्य होता है। जो कर्म अपने लिये किया जाता है वह कर्तव्य नहीं होता, प्रत्युत कर्ममात्र होता है, जिससे मनुष्य बँधता है। इसलिये यज्ञमें देना-ही-देना होता है, लेना केवल निर्वाहमात्रके लिये होता है (गीता 4। 21)। शरीर यज्ञ

करनेके लिये समर्थ रहे--इस दृष्टिसे शरीर-निर्वाहमात्रके लिये वस्तुओंका उपयोग करना भी यज्ञके अन्तर्गत है। मनुष्य-शरीर यज्ञके लिये ही है। उसे मान-बड़ाई, सुख-आराम आदिमें लगाना बन्धनकारक है। केवल यज्ञके लिये कर्म करनेसे मनुष्य बन्धनरहित (मुक्त) हो जाता है और उसे सनातन ब्रह्मकी प्राप्ति हो जाती है।

भगवद गीता 4.31 - अध्याय 4 श्लोक 31 हिंदी और अंग्रेजी