भगवद्गीता में कुल अठारह अध्याय हैं। इनका तीन खण्डों में संपादन किया गया है। प्रथम खण्ड के छः अध्यायों में कर्मयोग का वर्णन किया गया है। दूसरे खण्ड में भक्ति की महिमा और भक्ति को पोषित करने का वर्णन हुआ है। यह भगवान के ऐश्वर्यों की ओर भी ध्यान आकर्षित करता है। तीसरे खण्ड के छः अध्यायों में तत्त्वज्ञान पर व्याख्या की गयी है। यह तीसरे खण्ड के अध्यायों का प्रथम अध्याय है। यह दो शब्दों क्षेत्र (शरीर) और क्षेत्रज्ञ (शरीर का ज्ञाता) से परिचित कराता है। हम शरीर को क्षेत्र के रूप में और शरीर में निवास करने वाली आत्मा को शरीर के ज्ञाता के रूप में स्वीकार कर सकते हैं लेकिन यह एक सरलीकरण है क्योंकि क्षेत्र का अर्थ वास्तव में अधिक व्यापक हैं। इसमें मन, बुद्धि, अहंकार और माया (प्राकृत) शक्ति के अन्य सभी घटक भी सम्मिलित हैं जिनसे हमारा व्यक्तित्त्व निर्मित होता है। व्यापक ज्ञान के आधार पर देह के क्षेत्र में आत्मा को छोड़कर जो कि 'शरीर की ज्ञाता' है, हमारे व्यक्तित्व के सभी पहलू सम्मिलित हैं। जिस प्रकार किसान खेत में बीज बो कर खेती करता है। इसी प्रकार से हम अपने शरीर को शुभ-अशुभ विचारों और कर्मों से पोषित करते हैं और परिणाम स्वरूप अपना भाग्य बनाते हैं। महात्मा बुद्ध ने यह व्याख्या की है-"हम जो सोचते हैं वही हमारे सामने परिणाम के रूप में आता है" इसलिए हम जैसे सोचते हैं वैसे बन जाते हैं। महान अमेरिकी विचारक राल्फ वाल्डो हमर्सन ने कहा है-"विचार ही सभी कर्मों का जनक है।" इसलिए हमें शुभ एवं उचित विचारों और कर्मों से अपने शरीर को पोषित करने की विधि सीखनी चाहिए। इसके लिए शरीर और शरीर के ज्ञाता के बीच के भेद को जानना आवश्यक है। इस अध्याय में श्रीकृष्ण इस अन्तर के विस्तृत विश्लेषण की ओर ले जाते हैं। वे प्राकृत शक्ति के उन तत्त्वों की गणना करते हैं जिनसे शरीर के क्षेत्र की रचना होती है। वे शरीर में होने वाले उन परिवर्तनों जो भावनाओं, मत, दृष्टिकोण के रूप में उदय होते हैं का वर्णन करते हैं। वे उन गुणों और विशेषताओं का भी उल्लेख करते हैं जो मन को शुद्ध और उसे ज्ञान के प्रकाश से आलोकित करते हैं। ऐसे ज्ञान से आत्मा के ज्ञान की अनुभूति करने में सहायता मिलती है जो शरीर की ज्ञाता है। तत्पश्चात इस अध्याय में भगवान जो सभी प्राणियों के शरीर का ज्ञाता है का अद्भुत वर्णन किया गया है। भगवान विरोधी गुणों के अधिष्ठाता हैं अर्थात वे एक ही समय में विरोधाभासी गुणों को प्रकट करते हैं। इस प्रकार से वे सृष्टि में सर्वत्र व्यापक हैं और सभी के हृदयों में निवास करते हैं। इसलिए वे सभी जीवों की परम आत्मा हैं। आत्मा, परमात्मा और भौतिक शक्ति का वर्णन करने के पश्चात श्रीकृष्ण आगे यह व्याख्या करते हैं कि जीवों द्वारा किए जाने वाले कर्मों के लिए इनमें से कौन उत्तरदायी है? और पूरे संसार में इनके कारण और परिणाम के लिए कौन अत्यधिक उत्तरदायी है? वे जिन्हें इनके भेद का बोध हो जाता है और जो भली भांति कर्म के कारण को जान लेते हैं वही वास्तव में देखते हैं और केवल वही दिव्य ज्ञान में स्थित हो जाते हैं। वे सभी जीवों में परमात्मा को देखते हैं और इसलिए वे मानसिक रूप से किसी को अपने से नीचा नहीं समझते। वे एक ही प्राकृतिक शक्ति में स्थित विविध प्रकार के जीवन रूपों को देख सकते हैं और जब वे सभी अस्तित्त्वों में सामान्य आध्यात्मिक आधार को देखते हैं तब उन्हें ब्रह्म की अनुभूति होती है।