अध्याय 9: राज विद्या योग

राज विद्या द्वारा योग 34 वर्सेज

सातवें और आठवें अध्याय में श्रीकृष्ण ने भक्ति को योग प्राप्त करने का सरल साधन और योग की उत्तम पद्धति बताया था। नौवें अध्याय में उन्होंने अपनी परम महिमा का व्याख्यान किया है जिससे विस्मय, श्रद्धा और भक्ति उत्पन्न होती है। वे यह बोध कराते हैं कि यद्यपि वे अर्जुन के सम्मुख साकार रूप में खड़े हैं किन्तु उन्हें मनुष्य के रूप में मानने की दुर्भावना धारण नहीं करनी चाहिए। वे स्पष्ट कहते हैं कि वे समस्त प्राकृतिक शक्तियों के अध्यक्ष हैं और सृष्टि सृजन के आरम्भ में अनगिनत जीवों के जीवन रूपों को उत्पन्न करते हैं और प्रलय के समय वापस उन्हें अपने में विलीन कर लेते हैं तथा सृष्टि के अगले चक्र में उन्हें पुनः प्रकट करते हैं। जिस प्रकार से शक्तिशाली वायु सभी स्थानों पर प्रवाहित होती है और सदैव आकाश में स्थित रहती है। उसी प्रकार से सभी जीव भगवान में निवास करते हैं फिर भी वे अपनी योगमाया शक्ति द्वारा तटस्थ पर्यवेक्षक बने रहकर इन सभी गतिविधियों से विलग और विरक्त रहते हैं। केवल भगवान ही आराधना का एक मात्र लक्ष्य हैं। इसे स्पष्ट करते हुए भगवान श्रीकृष्ण बहु हिन्दू देवी-देवताओं की पूजा के मिथ्या भ्रम का समाधान करते हैं। भगवान सभी प्राणियों के लक्ष्य, सहायक, शरणदाता और सच्चे मित्र हैं। जिन मनुष्यों की रुचि वैदिक कर्मकाण्डों का पालन करने में होती है वे देवताओं का स्वर्गलोक प्राप्त करते हैं किन्तु जब उनके पुण्य कर्म क्षीण हो जाते हैं तब उन्हें लौटकर पुनः पृथ्वीलोक में आना पड़ता है लेकिन जो परम प्रभु की भक्ति में तल्लीन रहते है वे उनके परम धाम में जाते हैं। इसलिए श्रीकृष्ण उनके प्रति की जाने वाली विशुद्ध भक्ति को सर्वोत्तम बताते हुए उसकी प्रशंसा करते हैं। ऐसी भक्ति में लीन होकर जो कुछ हमारे पास है वह सब भगवान को समर्पित करते हुए हमें भगवान की इच्छा के साथ पूर्ण रूप से एकनिष्ठ होकर जीवनयापन करना चाहिए। ऐसी शुद्ध भक्ति पाकर हम कर्म के बंधनों से मुक्त रहेंगे और भगवान से गूढ़ संबंध स्थापित करने के लक्ष्य को पा सकेंगे। आगे श्रीकृष्ण दृढ़तापूर्वक कहते हैं कि वे न तो किसी का पक्ष लेते हैं और न ही किसी की उपेक्षा करते हैं। वह सभी प्राणियों के प्रति निष्पक्ष रहते हैं। यहाँ तक कि अधम पापी भी यदि उनकी शरण में आते हैं तब भी वे प्रसन्नता से उनको अपनाते हैं और उन्हें शीघ्र सद्गुणी बनाकर पवित्र कर देते हैं। वे वचन देते हैं कि उनके भक्त का कभी पतन नहीं हो सकता। अपने भक्तों के हृदय में आसीन होकर वे उनके अभावों की पूर्ति करते हैं और जो पहले से उनके स्वामित्व में होता है उसकी रक्षा करते हैं। इसलिए हमें सदैव उनका ही चिन्तन और आराधना करनी चाहिए तथा मन और शरीर को पूर्णतया उनके प्रति समर्पित कर उन्हें अपना परम लक्ष्य बनाना चाहिए।

कविता 16-17

।।9.16 -- 9.18।।  क्रतु मैं हूँ, यज्ञ मैं हूँ, स्वधा मैं हूँ, औषध मैं हूँ, मन्त्र मैं हूँ, घृत मैं हूँ, अग्नि मैं हूँ और हवनरूप क्रिया भी मैं हूँ। जाननेयोग्य पवित्र, ओंकार, ऋग्वेद, सामवेद और यजुर्वेद भी मैं ही हूँ। इस सम्पूर्ण जगत्का पिता, धाता, माता, पितामह, गति, भर्ता, प्रभु, साक्षी, निवास, आश्रय, सुहृद्, उत्पत्ति, प्रलय, स्थान, निधान तथा अविनाशी बीज भी मैं ही हूँ। ।।9.16 -- 9.18।। क्रतु मैं हूँ, यज्ञ मैं हूँ, स्वधा मैं हूँ, औषध मैं हूँ, मन्त्र मैं हूँ, घृत मैं हूँ, अग्नि मैं हूँ और हवनरूप क्रिया भी मैं हूँ। जाननेयोग्य पवित्र, ओंकार, ऋग्वेद, सामवेद और यजुर्वेद भी मैं ही हूँ। इस सम्पूर्ण जगत् का पिता, धाता, माता, पितामह, गति, भर्ता, प्रभु, साक्षी, निवास, आश्रय, सुहृद्, उत्पत्ति, प्रलय, स्थान, निधान तथा अविनाशी बीज भी मैं ही हूँ।

भगवद गीता अध्याय 9: राज विद्या योग