इस अध्याय में श्रीकृष्ण मनुष्यों में दैवीय और आसुरी दो प्रकार की प्रकृति का वर्णन करते हैं। दैवीय गुण धार्मिक ग्रंथों के उपदेशों के अनुसरण, सत्वगुण को पोषित करने और अध्यात्मिक अभ्यास द्वारा मन को शुद्ध करने से विकसित होते हैं। ये दैवीय संपत्ति में वृद्धि की ओर अग्रसर करते हैं और अंततः भगवद्प्राप्ति के लक्ष्य तक पहुँचाते हैं। इसके विपरीत संसार में आसुरी प्रवृत्ति भी पायी जाती है जो मोह अर्थात आसक्ति और अज्ञानता के गुणों की संगति से तथा भौतिक विचारों को अंगीकार करने से विकसित होती है। यह किसी के व्यक्तित्व में प्रतिकूल लक्षणों का पोषण करती है और अंततः आत्मा को नारकीय अस्तित्वों में धकेलती है। यह अध्याय दिव्य प्रकृति के दैवीय गुणों से सम्पन्न पुण्यात्माओं के निरूपण से प्रारंभ होता है। आगे इसमें आसुरी गुणों का वर्णन किया गया है जिनका अति सतर्कता के साथ त्याग करना चाहिए, क्योंकि ये आगे आत्मा को पुनः अज्ञानता और 'संसार' अर्थात जीवन और मृत्यु के चक्र की ओर खींचते हैं। श्रीकृष्ण इस अध्याय का समापन करते हुए कहते हैं कि क्या किया जाना चाहिए और क्या नहीं किया जाना चाहिए, इसका निर्णय करने का अधिकार केवल वेद शास्त्रों का ही माना जाता है अतः हमें भी वेदों के वाक्यों को स्वीकार करना चाहिए। हमें इन वैदिक शास्त्रों के विधि-निषेधों को समझना चाहिए और तदानुसार इस संसार में अपने कार्यों का निष्पादन और दायित्वों का निर्वहन करना चाहिए।