अध्याय 3: कर्मयोग

कर्म का विज्ञान 43 वर्सेज

इस अध्याय में श्रीकृष्ण यह समझाते हैं कि सभी जीव अपनी स्वाभाविक प्रकृति के गुणों के कारण कार्य करने के लिए बाध्य होते हैं और कोई भी प्राणी एक क्षण के लिए भी अकर्मा नहीं रह सकता। वे जो गेरुए वस्त्र धारण कर बाह्य रूप से वैराग्य प्रदर्शित करते हैं लेकिन आंतरिक रूप से इन्द्रिय विषयों के भोगों के प्रति आसक्ति रखते हैं, वे ढोंगी हैं। जो कर्मयोग का अनुपालन करते हुए बाह्य रूप से निरन्तर कर्म करते रहते हैं लेकिन उनमें आसक्त नहीं होते, वे उनसे श्रेष्ठ हैं। इसके बाद श्रीकृष्ण इस पर बल देते हैं कि सभी जीवित प्राणियों को भगवान की सृष्टि की व्यवस्था के अभिन्न अंग के रूप में अपने दायित्वों का निर्वाहन करना पड़ता है। जब हम भगवान के प्रति आभार व्यक्त करते हुए अपने कर्तव्यों का पालन करते हैं तब ऐसे कर्म यज्ञ बन जाते हैं। यज्ञों का अनुष्ठान वास्तव में स्वर्ग के देवताओं को प्रसन्न करने के लिए किया जाता है और वे हमें सांसारिक सुख और समृद्धि प्रदान करते हैं। ऐसे यज्ञों के कारण वर्षा होती है और वर्षा से अन्न उत्पन्न होता है जो जीवन निर्वाह के लिए आवश्यक है। वे जो इस सृष्टि चक्र में अपने उत्तरदायित्व को स्वीकार नहीं करते, वे पापी हैं। वे केवल इन्द्रिय सुख प्राप्त करने के लिए जीवित रहते हैं और उनका जीवन व्यर्थ हो जाता है। फिर आगे श्रीकृष्ण कहते हैं कि शेष मानवजाति से भिन्न ऐसी प्रबुद्ध आत्माएँ जो आत्मज्ञान में स्थित रहती हैं, वे शारीरिक उत्तरदायित्वों का पालन करने के लिए बाध्य नहीं होती क्योंकि वे आत्मा के स्तर पर अपने उच्च दायित्वों का निर्वाहन कर रही होती हैं। हालांकि वे अपने सामाजिक दायित्वों का त्याग कर देती हैं जिससे सामान्य मनुष्यों के मन में असमंजस की भावना उत्पन्न होती है जो महापुरुषों के पदचिह्नों पर चलना चाहते हैं। इसलिए ज्ञानी पुरुषों को संसार के अनुसरणार्थ उच्च आदर्श प्रस्तुत करने के लिए बिना किसी प्रयोजन और व्यक्तिगत लाभ के लिए निरन्तर कर्म करना होगा। यह अज्ञानी को अपरिपक्व अवस्था में अपने नियत दायित्वों का त्याग करने से रोकेगा। अतीत में महान राजर्षियों जैसे कि राजा जनक और अन्य राजाओं का यही उद्देश्य था जिन्होंने अपने सांसारिक दायित्वों का निर्वाहन किया था। तत्पश्चात अर्जुन पूछता है कि लोग अनिच्छा से पापपूर्ण कर्मों में प्रवत्त क्यों होते हैं? क्या उन्हें बलपूर्वक पाप कर्मों में लगाया जाता है। परम प्रभु श्रीकृष्ण बताते हैं कि संसार का सर्वभक्षी पाप-पूर्ण शत्रु केवल काम-वासना है। जिस प्रकार से अग्नि धुंए से ढकी रहती है, दर्पण धूल से ढका रहता है उसी प्रकार से कामना मनुष्य के ज्ञान पर आवरण डाल देती है और उसकी बुद्धि का विनाश कर देती है। फिर श्रीकृष्ण अर्जुन से आह्वान करते हैं कि वह इस कामना रूपी शत्रु का संहार कर दें जो पाप का मूर्तरूप है और अपनी इन्द्रिय, मन और बुद्धि को वश में करें।

भगवद गीता अध्याय 3: कर्मयोग