इस अध्याय में कर्म संन्यास के मार्ग की तुलना कर्मयोग के मार्ग के साथ की गयी है। श्रीकृष्ण बताते हैं कि दोनों मार्ग एक ही लक्ष्य की ओर ले जाते हैं और हम इनमें से किसी एक का चयन कर सकते हैं। लेकिन कर्म का त्याग तब तक पूर्णरूप से नहीं किया जा सकता। जब तक मन पूर्णतः शुद्ध न हो जाए और मन की शुद्धि भक्ति के साथ कर्म करने से प्राप्त होती है। इसलिए कर्मयोग बहुसंख्यक लोगों के लिए उपयुक्त विकल्प है। कर्मयोगी अपने सांसारिक दायित्वों का निर्वहन शुद्ध बुद्धि के साथ करते हुए अपने कर्म फलों की आसक्ति का त्याग कर उन्हें भगवान को अर्पित करते हैं। इस प्रकार से वे पाप से उसी प्रकार से अप्रभावित रहते हैं जिस प्रकार से कमल के पुष्प का पत्ता जल में तैरता है किन्तु जल उसे स्पर्श नहीं कर पाता। ज्ञान के आलोक में वे शरीर को नवद्वारों के एक नगर के रूप में देखते हैं जिसमें आत्मा निवास करती है। इसलिए वे न तो स्वयं को कर्म का कर्ता और न ही कर्म का भोक्ता मानते हैं। वे ब्राह्मण, गाय, हाथी, और कुत्ते का मांस भक्षण करने वाले चांडाल को एक समान दृष्टि से देखते हैं। ऐसे सच्चे संत भगवान के दोषरहित गुणों को अपने भीतर विकसित करते हैं और परम सत्य में स्थित हो जाते हैं किन्तु सांसारिक लोग यह जाने बिना कि इन्द्रिय विषयों के संपर्क से मिलने वाले सुख वास्तव में कष्टों के कारण हैं। अतः वे अज्ञानता के कारण इन्द्रिय विषयों से मिलने वाले सुखों को प्राप्त करने का प्रयास करते हैं। लेकिन कर्मयोगी इनसे प्रसन्न नहीं होते बल्कि इसकी अपेक्षा वे अपने भीतर भगवान के आनन्द की अनुभूति करना पसंद करते हैं। आगे यह अध्याय संन्यास के मार्ग का वर्णन करता है। कर्म संन्यासी अपने मन, इन्द्रियों और बुद्धि को नियंत्रित करने के लिए तपस्या करते हैं। इस प्रकार से वे बाह्य सुख के विचारों को बहिष्कृत कर इच्छा, भय और क्रोध से मुक्त हो जाते हैं। तब फिर वे भगवान की भक्ति के साथ अपनी तपस्या को सम्पूर्ण करते हैं और चिरस्थायी शांति प्राप्त करते हैं।