अध्याय 11: विश्वरूप दर्शन योग

भगवान के विराट रूप के दर्शन का योग 55 वर्सेज

पिछले अध्याय में श्रीकृष्ण ने अर्जुन की भक्ति को पोषित और प्रगाढ करने के लिए अपनी दिव्य विभूतियों का वर्णन किया था। अध्याय के अन्त में वे स्पष्ट रूप से अपने असीम विश्व रूप का उल्लेख करते हुए कहते हैं कि उसमें दिखाई देने वाले सभी सौंद्रर्य, ऐश्वर्य, तेज और शक्तियों को उनके तेज का स्फुलिंग मानो। इस अध्याय में अर्जुन श्रीकृष्ण से प्रार्थना करता है कि वे उसे अपने विश्व रूप या सभी ब्रह्माण्डों में व्याप्त अपने अनंत ब्रह्माण्डीय विराट रूप का दर्शन कराएँ। तब श्रीकृष्ण उस पर कृपा करते हुए उसे अपनी दिव्य दृष्टि प्रदान करते हैं जिसे प्राप्त कर अर्जुन देवों के देव श्रीकृष्ण के शरीर में सम्पूर्ण सृष्टि का अवलोकन करता है। फिर वह भगवान के अद्भुत अनंत स्वरूप में अनगनित मुख, आँखें, भुजाएँ, उदर देखता है। उनके विराट रूप का कोई आदि और अन्त नहीं है और वह प्रत्येक दिशा में अपरिमित रूप से बढ़ रहा है। उस रूप का तेज आकाश में एक साथ चमकने वाले सौ सूर्यों के प्रकाश से अधिक है। उस विराट रूप को देखकर अर्जुन के शरीर के रोम कूप सिहरने लगे। वह देखता है कि भगवान के नियम के भय से तीनों लोक भय से कांप रहें हैं। उसने देखा कि स्वर्ग के सभी देवता भगवान में प्रवेश कर उनकी शरण ग्रहण कर रहे हैं और सिद्धजन पवित्र वैदिक मंत्रों, प्रार्थनाओं और स्रोतों का पाठ कर भगवान की स्तुति कर रहे हैं। आगे अर्जुन कहता है कि वह धृतराष्ट्र के सभी पुत्रों को उनके सहयोगी राजाओं सहित उनके मुख में प्रवेश करते हुए उसी प्रकार से देख रहा है जैसे पतंगा तीव्र गति से अग्नि की ज्वाला में प्रवेश कर अपना विनाश करता है तब अर्जुन स्वीकार करता है कि भगवान के विश्व रूप को देखकर उसका हृदय भय से कांप रहा है और उसने अपना मानसिक संतुलन खो दिया है। भयतीत अर्जुन श्रीकृष्ण से उनके इस भयानक रूप की वास्तविकता जानना चाहता है जो कि उनके उस रूप जैसा नहीं था तथा जिसे वह अब से पहले अपने गुरु और मित्र के रूप में जानता था। इसका उत्तर देते हुए श्रीकृष्ण कहते हैं कि वे काल के रूप में तीनों लोकों के संहारक हैं। वे घोषणा करते हैं कि कौरव पक्ष के महायोद्धा पहले ही उनके द्वारा मारे जा चुके हैं इसलिए अपनी विजय को सुनिश्चित मानते हुए उठो और युद्ध करो। इसकी प्रतिक्रिया में अर्जुन अदम्य साहस और अतुल्य शक्ति से सम्पन्न भगवान के रूप में उनकी प्रशंसा करता है और पुनः उनकी वंदना करता है। वह कहता है कि यदि दीर्घकालीन मित्रता के दौरान श्रीकृष्ण को केवल मानव के रूप में देखने के कारण उपेक्षित भाव से भूलवशः उससे उनके प्रति कोई अपराध हो गया हो तो वे उसे क्षमा कर दें। वह उन्हें उस पर दया कर उन्हें एक बार पुनः अपना आनंदमयी भगवान का रूप दिखाने की प्रार्थना करता है। श्रीकृष्ण उसकी प्रार्थना को स्वीकार करते हुए पहले अपना चतुर्भुज नारायण रूप और तत्पश्चात अपना दो भुजाओं वाला मनोहारी पुरुषोत्तम रूप धारण करते हैं। वे अर्जुन को बताते हैं कि अर्जुन भगवान के जिस विश्वरूप को देख चुका है उसका दर्शन करना अत्यंत कठिन हैं। वेदों के अध्ययन करने से उनके साकार रूप को देखा नहीं जा सकता। उनके साकार रूप को न तो वेदों के अध्ययन द्वारा और न ही तपस्या, दान या अग्निहोत्र यज्ञों द्वारा देखा जा सकता है लेकिन अर्जुन, मैं जिस रूप में तुम्हारे समक्ष खड़ा हूँ उसे केवल विशुद्ध और अनन्य भक्ति से देखा जा सकता है और उसमें एकीकृत हुआ जा सकता है।

कविता 10-11

।।11.10 -- 11.11।। जिसके अनेक मुख और नेत्र हैं, अनेक तहरके अद्भुत दर्शन हैं, अनेक दिव्य आभूषण हैं, हाथोंमें उठाये हुए अनेक दिव्य आयुध हैं तथा जिनके गलेमें दिव्य मालाएँ हैं, जो दिव्य वस्त्र पहने हुए हैं, जिनके ललाट तथा शरीरपर दिव्य चन्दन, कुंकुम आदि लगा हुआ है, ऐसे सम्पूर्ण आश्चर्यमय, अनन्तरूपवाले तथा चारों तरफ मुखवाले देव-(अपने दिव्य स्वरूप-) को भगवान् ने दिखाया। ।।11.10 -- 11.11।। जिसके अनेक मुख और नेत्र हैं, अनेक तहरके अद्भुत दर्शन हैं, अनेक दिव्य आभूषण हैं, हाथोंमें उठाये हुए अनेक दिव्य आयुध हैं तथा जिनके गलेमें दिव्य मालाएँ हैं, जो दिव्य वस्त्र पहने हुए हैं, जिनके ललाट तथा शरीरपर दिव्य चन्दन, कुंकुम आदि लगा हुआ है, ऐसे सम्पूर्ण आश्चर्यमय, अनन्त रूपोंवाले तथा चारों तरफ मुखवाले देव-(अपने दिव्य स्वरूप-) को भगवान् ने दिखाया।

कविता 26-27

।।11.26 -- 11.27।। हमारे मुख्य योद्धाओंके सहित भीष्म, द्रोण और वह कर्ण भी आपमें प्रविष्ट हो रहे हैं। राजाओंके समुदायोंके सहित धृतराष्ट्रके वे ही सब-के-सब पुत्र आपके विकराल दाढ़ोंके कारण भयंकर मुखोंमें बड़ी तेजीसे प्रविष्ट हो रहे हैं। उनमेंसे कई-एक तो चूर्ण हुए सिरोंसहित आपके दाँतोंके बीचमें फँसे हुए दीख रहे हैं। ।।11.26 -- 11.27।। हमारे मुख्य  योद्धाओंके सहित भीष्म, द्रोण और वह कर्ण भी आपमें प्रविष्ट हो रहे हैं। राजाओंके समुदायोंके सहित धृतराष्ट्रके वे ही सब-के-सब पुत्र आपके विकराल दाढ़ोंके कारण भयंकर मुखोंमें बड़ी तेजीसे प्रविष्ट हो रहे हैं। उनमेंसे कईएक तो चूर्ण हुए सिरोंसहित आपके दाँतोंके बीचमें फँसे हुए दीख रहे हैं।

कविता 41-42

।।11.41 -- 11.42।। आपकी महिमा और स्वरूपको न जानते हुए 'मेरे सखा हैं' ऐसा मानकर मैंने प्रमादसे अथवा प्रेमसे हठपूर्वक (बिना सोचे-समझे) 'हे कृष्ण ! हे यादव ! हे सखे !' इस प्रकार जो कुछ कहा है; और हे अच्युत ! हँसी-दिल्लगीमें, चलते-फिरते, सोते-जागते, उठते-बैठते, खाते-पीते समयमें अकेले अथवा उन सखाओं, कुटुम्बियों आदिके सामने मेरे द्वारा आपका जो कुछ तिरस्कार किया गया है;  वह सब अप्रमेयस्वरुप आपसे मैं क्षमा माँगता हूँ। ।।11.41 -- 11.42।। आपकी  महिमा और स्वरूपको न जानते हुए 'मेरे सखा हैं' ऐसा मानकर मैंने प्रमादसे अथवा प्रेमसे भी हठपूर्वक (बिना सोचे-समझे) 'हे कृष्ण ! हे यादव ! हे सखे !' इस प्रकार जो कुछ कहा है; और हे अच्युत ! हँसी-दिल्लगीमें, चलते-फिरते, सोते-जागते, उठते-बैठते, खाते-पीते समयमें अकेले अथवा उन सखाओं, कुटुम्बियों आदिके सामने मेरे द्वारा आपका जो कुछ तिरस्कार किया गया है, वह सब अप्रमेस्वरूप आपसे मैं क्षमा करवाता हूँ ।

भगवद गीता अध्याय 11: विश्वरूप दर्शन योग