अध्याय 18: मोक्ष संन्यास योग

संन्यास में पूर्णता और शरणागति के माध्यम से योग 78 वर्सेज

भगवद्गीता का अंतिम अध्याय सबसे बड़ा है और इसमें कई विषयों को सम्मिलित किया गया है। अर्जुन संस्कृत में प्रायः प्रयुक्त होने वाले दो शब्दों संन्यास और त्याग के संबंध में प्रश्न पूछने के साथ संन्यास के विषय पर चर्चा प्रारम्भ करता है। दोनों शब्द एक ही मूल धातु के हैं जिसका अर्थ 'परित्याग करना' है। संन्यासी वह है जो गृहस्थ जीवन में भाग नहीं लेता और समाज को त्याग कर साधना का अभ्यास करता है। त्यागी वह है जो कर्म में संलग्न रहता है लेकिन कर्म-फल का भोग करने की इच्छा का त्याग करता है। (यही गीता की वाणी का मुख्य अभिप्राय है) श्रीकृष्ण दूसरे प्रकार के त्याग की संतुति करते हैं। वे परामर्श देते हैं कि यज्ञ, दान, तपस्या और कर्त्तव्य पालन संबंधी कार्यों का कभी त्याग नहीं करना चाहिए क्योंकि ये ज्ञानी को भी शुद्ध करते हैं। इनका संपादन केवल कर्त्तव्य पालन की दृष्टि से करना चाहिए क्योंकि इन कार्यों को कर्म फल की आसक्ति के बिना संपन्न करना आवश्यक होता है। तत्पश्चात श्रीकृष्ण तीन कारकों के विस्तृत गहन विश्लेषण की ओर आते हैं जो कर्म, कर्म के तीन संघटक और कर्म फल में योगदान करने वाले पाँच कारकों को प्रेरित करते हैं। वे इनमें से प्रत्येक की तीन गुणों के अंतर्गत विवेचना करते हैं। वे कहते हैं कि जो अल्पज्ञानी है वे स्वयं को अपने कार्यों का कारण मानते हैं लेकिन विशुद्ध बुद्धि युक्त प्रबद्ध आत्माएँ न तो स्वयं को अपने कार्यों का कर्ता और न ही भोक्ता मानती हैं। अपने कर्मों के फलों से सदैव विरक्त रहने के कारण वे कार्मिक प्रतिक्रियाओं के बंधन में नहीं पड़ते। आगे इस अध्याय में यह अवगत कराया गया है कि लोगों के उद्देश्यों और कर्मों में भिन्नता क्यों पाई जाती है? तत्पश्चात इसमें प्रकृति के तीन गुणों के अनुसार ज्ञान, कर्म और कर्ता की श्रेणियों का वर्णन किया गया है। फिर आगे यह अध्याय बुद्धि, दृढ संकल्प और सुख के संबंध में समान विश्लेषण प्रस्तुत करता है। इसके बाद यह अध्याय उन लोगों का चित्रण करता है जिन्होंने आध्यात्मिक जीवन में पूर्णता की अवस्था प्राप्त कर ली है और ब्रह्म की अनुभूति में लीन हो गए हैं। आगे इस अध्याय में यह कहा गया है कि ऐसे पूर्ण योगी भी भक्ति में तल्लीनता द्वारा अपनी पूर्णता का अनुभव करते हैं। इसलिए भगवान के दिव्य व्यक्तित्त्व के रहस्य को केवल मधुर भक्ति द्वारा जाना जा सकता है। इसके बाद श्रीकृष्ण अर्जुन को स्मरण कराते हैं कि भगवान सभी जीवों के हृदय में स्थित हैंऔर उनके कर्मों के अनुसार वे उनकी गति को निर्देशित करते हैं। यदि हम उनका स्मरण करते हैं और अपने सभी कर्म उन्हें समर्पित करते हैं तथा उनका आश्रय लेकर उन्हें अपना लक्ष्य बनाते हैं तब उनकी कृपा से हम सभी प्रकार की कठिनाईयों को पार कर लेंगे। लेकिन यदि हम अपने अभिमान से प्रेरित होकर अपनी इच्छानुसार कर्म करते है तब हम सफलता प्राप्त नहीं कर पाएंगे। अंत में श्रीकृष्ण यह प्रकट करते हैं कि सभी प्रकार की धार्मिकता का त्याग करना और केवल भगवान की भक्ति के साथ-साथ उनके समक्ष शरणागत होना ही अति गुह्यतम ज्ञान है। तथापि यह ज्ञान उन्हें नहीं प्रदान करना चाहिए जो आडम्बर-हीन और भक्त नहीं हैं, क्योंकि वे इसकी अनुचित व्याख्या करेंगे और इसका दुरूपयोग कर अनुत्तरदायिता से कर्मों का त्याग करेंगे। यदि हम यह गुह्य ज्ञान पात्र जीवात्मा को प्रदान करते है तब यह अति प्रेमायुक्त बन जाता है और भगवान को अति प्रसन्न करता है। इसके बाद अर्जुन भगवान को सूचित करता है कि उसका मोह नष्ट हो गया है और वह उनकी आज्ञाओं का पालन करने के लिए तत्पर है। अंत में संजय जो नेत्रहीन राजा धृतराष्ट्र को युद्ध भूमि पर भगवान श्रीकृष्ण और अर्जुन के बीच हो रहे संवादों को सुना रहा था, व्यक्त करता है कि वह इन संवादों को सुनकर इतना स्तंभित और आश्चर्य चकित है कि जैसे ही वह भगवान के पवित्र संवादों और भगवान के अति विशाल विश्व रूप का स्मरण करता है तब उसके शरीर के रोंगटे खड़े हो जाते हैं। गहन कथन के साथ भगवद्गीता का समापन करते हुए वह कहता है कि विजय सदैव वहीं होती है जहाँ भगवान और उसके भक्त होते हैं और इस प्रकार से अच्छाई, प्रभुता और समृद्धि भी वहीं होगी क्योंकि परम सत्य का प्रकाश सदैव असत्य के अंधकार को परास्त कर देता है।

कविता 51-53

।।18.51।।जो विशुद्ध (सात्त्विकी) बुद्धिसे युक्त, वैराग्यके आश्रित, एकान्तका सेवन करनेवाला और नियमित भोजन करनेवाला साधक धैर्यपूर्वक इन्द्रियोंका नियमन करके, शरीर-वाणी-मनको वशमें करके, शब्दादि विषयोंका त्याग करके और राग-द्वेषको छोड़कर निरन्तर ध्यानयोगके परायण हो जाता है, वह अहंकार, बल, दर्प, काम, क्रोध और परिग्रहका त्याग करके एवं निर्मम तथा शान्त होकर ब्रह्मप्राप्तिका पात्र हो जाता है। ।।18.52।।जो विशुद्ध (सात्त्विकी) बुद्धिसे युक्त, वैराग्यके आश्रित, एकान्तका सेवन करनेवाला और नियमित भोजन करनेवाला साधक धैर्यपूर्वक इन्द्रियोंका नियमन करके, शरीर-वाणी-मनको वशमें करके, शब्दादि विषयोंका त्याग करके और राग-द्वेषको छोड़कर निरन्तर ध्यानयोगके परायण हो जाता है, वह अहंकार, बल, दर्प, काम, क्रोध और परिग्रहका त्याग करके एवं निर्मम तथा शान्त होकर ब्रह्मप्राप्तिका पात्र हो जाता है। ।।18.53।।जो विशुद्ध (सात्त्विकी) बुद्धिसे युक्त, वैराग्यके आश्रित, एकान्तका सेवन करनेवाला और नियमित भोजन करनेवाला साधक धैर्यपूर्वक इन्द्रियोंका नियमन करके, शरीर-वाणी-मनको वशमें करके, शब्दादि विषयोंका त्याग करके और राग-द्वेषको छोड़कर निरन्तर ध्यानयोगके परायण हो जाता है, वह अहंकार, बल, दर्प, काम, क्रोध और परिग्रहका त्याग करके एवं निर्मम तथा शान्त होकर ब्रह्मप्राप्तिका पात्र हो जाता है।

भगवद गीता अध्याय 18: मोक्ष संन्यास योग